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मासिक धर्म और उससे जुड़ी परेशानियों पर अंजली ओझा का सटीक लेख, आप भी पढ़िए। NIU

मासिक धर्म और उससे जुड़ी परेशानियों पर अंजली ओझा का सटीक लेख, आप भी पढ़िए। NIU

मासिक धर्म: प्रथा और व्यथा____________अंजली ओझा✍️______________जब घर में कन्या का जन्म होता है, तो देवता भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि जब पुरुष का बल क्षीण हो जाता है, तब स्त्री शक्ति बनकर संसार की रक्षा करती है। स्त्री को लक्ष्मी स्वरूपा माना जाता है, अर्थात् धन-समृद्धि की देवी। जहाँ स्त्री है वहाँ समृद्धि है। एक प्रसिद्ध कहावत है “बिन नारी घर भूत का डेरा!” स्त्री घर को घर बनाती है। किन्तु उसके साथ अनेक अपवाद, अनेक वर्जनाएँ, अनेक भ्रांतियाँ जुड़ी होतीं हैं। इन कारणों से स्त्री को कभी त्याज्य माना जाता है, कभी अस्पृश्या, कभी स्त्री महक उठती है और कभी गंध से भर जाती है। कभी-कभी उसके आस-पास इतनी गंध भर जाती है कि उसे ख़ुद से ही घिन आने लगती है। वह अक्सर थक जाती है, चिड़चिड़ा उठती है, अवसादग्रस्त होती हैं। इन सबके पीछे कारण स्त्रियों की जैविकीय संरचना है। जन्म से जिन दो लिंगों को सामान्यतः जाना गया वे थे स्त्रीलिंग व पुल्लिंग! स्त्री के शारीरिक चिन्हों वाला शिशु कन्या(लड़की) कहाता है और पुरुष चिह्न के साथ जन्म लेने वाला शिशु बालक(लड़का) कहा जाता है। माने सारा झमेला उन शारीरिक चिन्हों का है, जो जन्म के साथ हमारी पहचान स्थापित करते हैं। यही से सारा संघर्ष शुरू होता है शरीर के आधार पर। स्त्री को जन्म से एक योनि प्राप्त होती है, उसे अपनी सामान्य आदतें पुरुषों से अलग रखनी पड़ती हैं। मसलन लघुशंका इत्यादि को लेकर। एक लड़की को देह ढ़कने की आदत जन्म से ही लगने लगती है। उसे बाकायदा सिखाया जाता है कि अपनी देह को किस प्रकार सुरक्षित रखना है। बचपन से विकसित होती आई आदत युवावस्था में शारीरिक बदलावों के कारण कहीं अधिक विकसित हो जाती है। जानकारी के लिए बता दू्ँ कि अपने शारीरिक बदलावों से लड़कियाँ बेहद असहज होती हैं। और जब यह बदलाव मासिक धर्म की सीढ़ी पर पहुँचता है तो लड़की के सिर पर अचानक पर्वत सा बोझ रख उठता है जिसके भार से वह अपना सिर नहीं ऊपर कर पाती। शुरुआती समय में लड़कियों का आत्मविश्वास पाताल में धंस जाता है। जस्ट बिकॉज़ हमारे समाज में मासिक धर्म पर कोई भी आम चर्चा नहीं होती। स्त्रियाँ ही स्त्रियों से ऐसी बातें छिपाती हैं। हमारा समाज भले ही ख़ुद को कितना भी प्रगतिशील दिखाने लगे किन्तु सत्य यही है कि अनेक ऐसी बातें हैं, मसले हैं जो आजतक टैबू बने हुए हैं।‌ उनपर बात करना मतलब “लज्जा को बेच खाना!” सेक्स पर बात करना भारतीय समाज में सबसे बड़ा टैबू है। इसपर चर्चा फिर कभी। आज बातें सिर्फ मासिक धर्म की।’मासिक धर्म पर टैबू’ बिन्दु का इस लेख में बड़ा महत्त्व है। अव्वल तो जो चीज़ टैबू है लोग उसे उघाड़ने की कोशिश करते हैं। जो कि ऐसे मुद्दों को आमजन की चर्चा का विषय बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन किसी भी संवेदनशील मुद्दे के टैबूपने को ख़त्म करने के लिए उसकी संवेदनशीलता नहीं ख़त्म करनी चाहिए। जो विषय आमविमर्श से दूर होते हैं उनमें भ्रांतियों की उतनी ही भरमार होती है, ठीक है लेकिन कभी-कभी उनपर न होने वाली चर्चाओं में ही हित छिपा होता है। किन्तु…. परन्तु…..! यह समय शिक्षा का है, ज्ञान हवाओं में तैर रहा है, आप जिधर भी नाक बढ़ाकर सूँघ लें, उधर से ज्ञान की खुश्बू आएगी। कुल मिलाकर कुल भी अगम्य नहीं है। तिसपर तर्कों को ही सर्वस्व मानने वाली पीढ़ी। आधुनिक शिक्षा ने परम्परा पर कुठाराघात किया है, वह बिना तर्क एक कदम नहीं बढ़ाना चाहती। यह आदत हमारे लिए कैसे घातक हो सकती है हमारे पास इसका एक बेहतरीन उदाहरण है मासिक धर्म!मासिक धर्म स्त्री की प्रजनन क्षमता का प्रमाण होता है। जब पहली बार मासिक धर्म आता है तो लड़की की माँ-दादी, भाभी, बुआ माने घर की अन्य स्त्रियाँ इस काल की वर्जनाओं का अदृश्य बंधन लड़कियों के चारों ओर घेर देती हैं, बिना किसी तार्किक विवेचन के। उन वर्जनाओं की सूची बड़ी लम्बी होती है, और एक नई लड़की को घबराहट से भर देने में पूरी तरह सक्षम भी।जैसे कि-“चार दिन रसोई में नहीं जाना।””पांच-छ: दिन पूजाघर में नहीं जाना।””कहीं बैठते समय ध्यान रखना।””अपने कपड़े जांचती रहना।””अगर दाग लग जाए तो सबसे छिपाके धो लेना।””कपड़ा ठीक से लेना।””गंदे कपड़े कहीं छिपाके डालना।””ठंडे पानी से मत नहाना।””बाल तो बिल्कुल नहीं धोना।” “बाप-भाई न जानने पाए। और किसी को भी मत बताना।””चाहे जितना दर्द हो दवा नहीं खाना।”अरे मैं सूची बनाने बैठूँगी तो सैकड़ों बातें आएँगी। मुद्दा यह है कि खून की चंद बूंदें कपड़े पर लगी देखते ही लड़कियों के हाथ-पैर कांप जाते हैं। यक़ीन मानिए उन दागों को सबसे छिपाकर धोने के लिए नलके तक जाना किसी सीक्रेट मिशन से कम नहीं होता। मैं किसी को दोष नहीं दूँगी, किन्तु मेरे लिखे शब्दों में अतिशयोक्ति तनिक भी नहीं है। यह जो पीरियड शेमिंग का दौर हर लड़की अपने आधे जीवन झेलती है, उसे समझना यों भी आसान नहीं है। कहा ही जाता है,”जाके पांव न फटी बेवाई, सो क्या जाने पीर पराई।”हर माह तारीखें याद रखना, मासिक चक्र के रूप याद रखना, कभी तारीख़ बदल जाए तो चिंता होती है। कभी अधिक स्राव हो तो मन बैठने लगता है। कभी अथाह दर्द, कभी अथाह अवसाद, कभी अनियमितताएँ, कभी किसी दवा का प्रतिकूल असर! उफ़! एक स्त्री के जीवनकाल में जितने माह उसे इस दौर से गुजरना होता है, उतनी ही शंकाओं का घर उसका मन होता है। मैं उन लोगों को धन्यवाद दूँगी जिन्होंने पीरियड को सामान्य विमर्श का हिस्सा बनाने की कोशिश की। लेकिन उन्हीं लोगों ने स्त्रियों को अनजाने ही पीड़ाओं के दलदल में धकेल दिया। पीरियड के समय की साफ-सफाई और बंधनों को मुद्दा बनाकर उठे विमर्श ने औरतों की ज़िंदगी तबाह कर दी। चूँकि विमर्श के दायरे सुधार से कहीं अधिक पूर्वाग्रही थे। लोगों को स्त्रियों से सहानुभूति कम थी, लेकिन परम्परागतगत तरीकों से चिढ़ अधिक थी। इसलिए सारे प्रतिबंध तोड़कर उन दिनों में भी स्त्रियाँ बेखटके कंधे से कंधा मिला रही है। लेकिन इस कंधा मिलाने में उनकी टूटती कमर का मांझी कोई नहीं है।हर घर में स्त्रियाँ रोगी होती जा रही है। स्त्रियों व पुरुषों के रोगी होने के यदि कोई सर्वेक्षण किए जाएँ तो आंकड़े व स्थिति दोनों चौंकाने वाले होंगे। इस सबकी एक वजह है एहतियात न बरतना, या कि आधुनिक फेरबदल से कदमताल करने के लिए ख़ुद को रोगों के समंदर में धकेल देना।उन दिनों में स्त्री शरीर बेहद कमजोर होता है। रक्तस्राव के दो दिन पूर्व शरीर पीड़ा से भर जाता है। कमर टूटने लगती है। जांघें ठस जाती है। शरीर पर सौ लाठियाँ पड़ी हों, उतना दर्द स्त्रियाँ हर माह सहती है और किसी से कहती भी नहीं। वे चार दिन स्त्रियों पर बहुत भारी होते हैं। उस समय उन्हें ठंड से बचना चाहिए। भारी सामान उठाने से बचना चाहिए। दौड़ भाग से बचना चाहिए। अपना ध्यान रखना चाहिए। अधिक स्नान नहीं करना चाहिए। अधिक तैलीय नहीं खाना चाहिए। कोई दवा नहीं लेनी चाहिए। लेकिन जबकि पीरियड शब्द इतना खास रहा नहीं तो इन दिनों महिलाएँ रसोई सम्भालने से लेकर गाड़ी चलाने, साइकिल भांजने तक का काम करती हैं। कुछ सालों में नारीवादियों के आंदोलन की बदौलत उस समय भी मंदिर और पूजा-पाठ भी महिलाएँ ही सम्भालती नज़र आएंगी। मासिक धर्म का टैबू स्त्री हित में था‌। पुराने समय में उस समय स्त्रियों का रसोई में प्रवेश वर्जित होता था‌। उनके हाथ का छुआ कोई पानी भी नहीं पीता था। यह सब इसीलिए था कि इसी बहाने उसे चार दिन पूरा आराम मिल सके। चूँकि शरीर के कमजोर होने के कारण रोगों की सम्भावना कहीं अधिक बढ़ी हुई होती है। स्नान करने की मनाही होती थी क्योंकि शरीर का तापमान थोड़ा ज़्यादा रहता है। ऐसे में ठंडा पानी शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। लेकिन सुधारवादियों ने इसे गंदगी से जोड़ दिया और बताया कि रोज नहाओ। साफ-सफाई जरूरी है। नई लड़कियाँ इनके सुझावों को मानने लगीं और अपनी जान आफत में डाल ली। अब तो इसी हाल में तमाम असंभव काम करने होते हैं। जिन्हें सोचते ही आँख में आँसू आ जाते हैं। और उन कामों को पूरा करने के बाद शरीर के जो हाल होते हैं वह कथनीय नहीं है। हमारे पूर्वजों की वर्जनाओं की तार्किक व्याख्या न होने के कारण परम्परागत नियम ख़त्म हो गए। अब अपने बेहद कमजोर वक्त में भी हमें रसोई देखनी होती है, भले ही आधे काम करो लेकिन करना तो पड़ता ही है। यह ज़रूर है कि कोई भी महिला ख़ुशी से तो काम नहीं करना चाहती, लेकिन दिन-प्रतिदिन टूटती परम्पराओं के खेल में हम पिस रहे हैं। हमारी कमर टूट जा रही है। अधिकांश महिलाएँ कमर और पैरों के दर्द से पीड़ित हैं। और पीड़ित रहेंगी। चूंकि यह नया युग है इसलिए इसमें आराम की कोई गुंजाइश नहीं है। चूंकि पुराने दकियानूसी नियम टूट चुके हैं। पीरियड शेमिंग भी पहले जैसी नहीं रही। हम बेलौस सैनिटरी नैपकिन खरीदते हैं। लेकिन इस बेबाकी की हम बड़ी कीमत चुका रहे हैं अपनी कमर तोड़कर!ज़रूरत है कि युवावस्था की दहलीज पर कदम रखने वाली लड़कियों को इस विषय को तार्किकता के साथ समझाया जाए। ताकि वे अपने पूर्वाग्रहों के कारण अपना अहित न करें।___________________________________अंजलि ओझा menstrualcyclepostanjali

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